25/8/11 के राष्ट्रीय सहारा मे प्रकाशित....
वर्तमान भारत एक दिशाहीन विकास के दौर से गुजर रहा है। जब से सत्ता के गलियारे में भ्रष्टाचार का मामला उठा है भारत में विकास कार्य न के बराबर हुआ है, लिहाजा मंहगाई बेकाबू हो रही है और सामान्य जीवन प्रभावित हो रहा है। सरकार भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों को निर्दोष सिद्ध करने की जुगत में जितना परेशान है उतना विकास में नहीं। विगत दो वर्षों के विकास का लेखा-जोखा हम देख सकते हैं कि किस तरह का काम हुआ। विकास की जो योजनाएं यूपीए के पिछले कार्यकाल में चल रही थी उनके अलावा कोई ऐसा कार्य नहीं हुआ जिसे इस सरकार की बड़ी उपलब्धि के रूप में याद किया जाय, और अगर कागज पर उन योजनाओं का नाम भी आ जाय तो जमीन पर उनका कोई रूप नहीं दिखाई दे रहा है। सरकार ने भ्रष्टाचार पर सफाई देने के सिवा और कोई भी बड़ा कार्य नहीं किया है। लेकिन क्या सफाई दे देने भर से भारत का विकास हो जायेगा? अगर ऐसा होता तो जिस तरह से प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री पिछले दो साल से कह रहे हैं कि मंहगाई कम हो जायेगी, अब तक कम हो गयी होती। उसे सिर्फ जुबानी कम किया गया है हकीकत में वह आज भी वैसी ही है। अब सरकार में शामिल लोगों का एकसूत्रीय कार्य भ्रष्टाचारियों का बचाव करना हो गया है विकास के मुद्दो पर बात करना नहीं। इससे पहले ऐसा नहीं होता था, विपक्ष ही इस तरह के कार्यों में विरोध करता था। इस बार स्थिति बहुत बदल गयी है, इस पूरे प्रकरण में विपक्ष की जगह जनता ने ले लिया है विपक्ष भी पक्ष की तरह तमाशाई बना हुआ है और इस अंधेरपन को देख रहा है। सरकार ने जनता को भी अपनी अज्ञानता का परिचय देते हुए तरजीह नहीं दिया जिसका असर अन्ना के साथ दिखाई दे रहा है।
जनता अब विरोध तक सीमित नहीं है उसमें अब आक्रोश दिखाई दे रहा है। यह आक्रोश अब सिर्फ विकास या भ्रष्टाचार तक ही नहीं है अब तो व्यवस्था परिवर्तन तक की आवाज उठ रही है। विश्व मंच पर इसके कई उदाहरण अभी हाल ही में देखने को मिले हैं। मिस्र की जनता ने क्या किया? यह अलग बात है की वहां तानाशाही थी भारत मे लोकतंत्रात्मक तानाशाही है। लोकतंत्र की दुहाई देकर सत्ताधारी वर्ग जिस तरह का खेल खेल रहा है वह अब असहनीय हो गया है और जनता आज उसी विकास को नकारने के लिए सड़क पर उतर रही है। सरकार के लोग यह राग अलाप रहे हैं कि जनलोकपाल को लोकतंत्र के हिसाब से बनाया गया है। जो लोकतंत्र व्यापक जनसमुदाय का हितैसी नहीं है उस लोकतंत्र को हम नकारते हैं और आज के भारत में कुछ ऐसा ही दिखाई दे रहा है।
आज विकास की जगह अपना बचाव महत्वपूर्ण हो गया है। सरकार अपनी बात पर क्यों अड़ी हुई है जब जनता उसे नकारते हुए सड़क पर उतर रही है। लोकतंत्र की रक्षा करने की जिम्मेदारी सिर्फ नेताओं की नहीं है, वे इसे सिर्फ अपना कर्तव्य न समझें। जनता लोकतंत्र का मूल आधार है इसलिए इसकी रक्षा की सर्वाधिक जिम्मेदारी जनता की ही है। लगभग एक साल से यह चल रहा है और आगे भी इसके समाप्त होने का कोई संकेत दिखाई नहीं दे रहा है। अब यह बड़ा प्र्श्न हमारे सामने है कि आखिर यह सब कब तक चलता रहेगा। जनता की परेशानी दिनोदिन बढ़ती जा रही है। देश में जब भी ऐसा कुछ होता है तो जनता ही पिसती है। उसके सामने कौन सा रास्ता है, वह क्या करे? ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हो गया है कि जनता के हितों का ध्यान रखते हुए सरकार कोई ठोस कदम उठाए और अपनी बुद्धिमत्ता और जिम्मेदारी का परिचय दे। जनता की परेशानी को कम करना सरकार की जुबानी नहीं, कर्मणीय प्राथमिकता होनी चाहिए। सारी समस्याओं की जड़ में अदूरदर्शिता ही है। इसलिए यह आवश्यक है कि सरकार विकास को सही-सही दर्शाए जिससे जनता के सामने उसे झुकना न पड़े।
सटीक और सार्थक विश्लेषण ....सिर्फ आंकड़ों से विकास की बात न हो ..यह ज़रूरी है....
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