राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित....
बहस
संतोष कुमार राय
वर्तमान समय अस्मिता के सवालों से टकराने का है। यह सवाल उनके लिए भी महत्त्व का है जो लगातार समाज के कुछ लोगों के विरुद्ध वर्ण और जाति की असमानतावादी बर्बर दृष्टि रखते आए हैं और उनके लिए भी जिन्हें साजिशन हजारों वर्षो से हाशिये पर उपेक्षित और शोषित रखा गया है। किसी भी गलत चीज को गलत कहना न सिर्फ कठिन बल्कि जोखिम भरा भी होता है। दलित साहित्यकारों, विचारकों ने कुछ इसी तरह का जोखिम उठाया है। हजारों वर्षो से भारत में चली आ रही वर्णवादी, सामंतवादी, ब्राह्मणवादी समाज-व्यवस्था ने उन्हें क्या दिया सिवाय पीड़ा, दंश और अपमान के? फिर भी हमारा समाज अपनी वैश्विक महानता की स्वघोषित उद्घोषणा का दम्भ भरता रहा है। सामाजिक संरचना को कुछ लोगों ने ऊपर से जितना महान बनाया है। वह अंदर से उससे अधिक खोखलेपन और विद्रूपता की शिकार है, जिसकी जड़ें ही असमानता में हैं और उसमें समानता की बात करना कठिन है। पिछले दिनों महात्मा गांधी अंतररराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में दो दिवसीय सेमिनार हुआ, जिसका विषय था, ‘दलित आत्मकथाएं : मनुष्य बनने की छटपटाहट- संदर्भ-वर्ण व्यवस्था।’ इस सेमिनार ने हमारे सामने अनेक सवाल खड़े किए जिन पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। आज बाकायदा कहा जा रहा है कि ग्लोबलाइजेशन का समय है और ग्लोबल विलेज की अवधारणा विकसित हो रही है। लेकिन इस सेमिनार के बाद लगा कि हम लोग ग्लोबलाइजेशन दौर के जिस ग्लोबल मुहल्ले के रहवासी हैं, उसके मूल में भी असमानता, शोषण और वैमनस्यता है। जब भारत के साथ विश्वमंच पर कोई अपमानजनक घटना होती है तो हम समानता की पुकार लगाने लगते हैं और वहां हमें अधिकार और मानवीयता का पाठ याद आने लगता है, साथ ही हम कुछ ज्यादा ही नैतिक और आदर्शवादी भी हो जाते हैं लेकिन जैसे ही अपने यहां समानता और अधिकारों की बात होती है हमारे दिमाग में वर्षो से चली आ रही शोषण की लम्बी परम्परा याद आती है। बहरहाल, दलित आत्मकथाएं सिर्फ आत्मालाप या आत्मवाचन नहीं हैं, जैसा कि उन्हें बताया जा रहा है। उनकी अपनी सामाजिक और साहित्यिक पहचान है। सच तो यह है कि साहित्य को देखने- परखने के जो पारम्परिक मानदंड हैं, दलित सहित्य को उनसे अलग हटकर देखने की जरूरत है। सेमिनार में उद्घाटन वक्तव्य देते हुए मराठी साहित्य के सुप्रसिद्ध लेखक शरण कुमार लिम्बाले ने सर्वप्रथम सेमिनार के शीर्षक में लगे हुए ‘..मनुष्य बनने की छटपटाहट’ से असहमति व्यक्त की। उन्होंने कहा कि ‘दलित मनुष्य नहीं हैं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। हम मनुष्य हैं और हम उन्हें भी मनुष्य बनाना चाहते हैं जिन्होंने अपनी मनुष्यता छोड़ दी है। हमें मनुष्य बनाने की गलत सहानुभूति न दिखाई जाए। हमारी लड़ाई अधिकार और आत्मसम्मान की लड़ाई है, सहानुभूति की कतई नहीं। हम उन्हें भी मनुष्य बनाना चाहते हैं, जो सदियों से हमारे साथ पशुवत व्यवहार करते आए हैं।’ दरअसल, मनुष्य अच्छे कर्मो से होता है, जन्म से नहीं। आजीवन दलित के साथ र्दुव्यवहार करने वाले किस हैसियत से मनुष्य हो सकते हैं लेकिन यह बात उन पर भी उसी रूप में लागू होगी जो आज मध्यवर्गीय जीवन के उस पूंजीवादी बाजारवादी वर्ग का समर्थन कर रहे हैं। मेरे लिए दलित साहित्य न सिर्फ नया है बल्कि विचारोत्तेजक भी है, क्योंकि इसने समाज और साहित्य को लेकर मन में इतने सवाल पैदा किए हैं जिन पर कुछ विचार किया जा सकता है। सहमति, असहमति हो सकती है और होनी भी चाहिए, क्योंकि असहमति ही नए विचारों का द्योतक है। सेमिनार के एक सत्र के वक्ता वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर भी थे। इस विचारोत्तेजक सत्र में दलित साहित्य को समाजवादी दृष्टि से देखने और समझने की ओर संकेत किया गया। राजकिशोर ने कहा कि ‘आज भारत में जाति से अधिक भयावह समस्या वर्ग की है। जाति थोड़ी ढीली पड़ी है लेकिन वर्ग दिनों दिन मजबूत हो रहा है। हमें मिलकर इस लड़ाई को लड़ना चाहिए।’ यह बात बहुत हद तक सही भी है क्योंकि मेट्रो कल्चर ने जिस तरह बाजार पैदा किया है वह वर्ग की समस्या को ही बढ़ावा दे रहा है। आगे, उन्होंने गांधी के हवाले से एक वक्तव्य दिया कि ‘यदि मैं दलित होता तो मेरे अनुभव की व्यापकता और गहराई कुछ अधिक होती। मैं भारत की सचाई को और अधिक गहराई से समझने से वंचित रह गया। और यदि पुनर्जन्म जैसी अवधारणा हो तो अगले जन्म में दलित के घर पैदा होना चाहूंगा।’ इस तरह की बातें या तो केवल भावुकता होती है या फिर जीवन की असीम इच्छा। दलित वर्ग में जन्म लेने की इच्छा रखना जितना आसान है, उसमें अपने विचारों की स्थापना उससे बहुत अधिक कठिन है। दलित साहित्य के लेखन को लेकर लगातार विवाद होता रहा है कि उसे गैर दलित नहीं लिख सकता है लेकिन इस सेमिनार ने आज के दलित और गैर दलित सभी रचनाकारों की रचनाओं को उपयोगी बताया, और यह विचार तुलसीराम का था। उनका मानना है कि इसे बांटकर नहीं, मिलाकर देखा जाए। दलित अस्मिता की स्थापना की ओर यह एक बढ़ा हुआ नया कदम है जो हमें साहित्य की खेमेबाजी से अलग नई दिशा प्रदान कर सकता है जिससे समाज में समानता का माहौल बन सके। दरअसल, साहित्य का उद्देश्य अलगाव नहीं, समानता होना चाहिए; तभी उसकी असली अर्थवत्ता सिद्ध होती है और वह समाज के लिए उपयोगी होता है। आने वाले समय में दलित साहित्य भी अपनी इसी समानता और अधिकार की लड़ाई के लिए जाना जाएगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें