लोहिया के इतिहास को दोहराने की जरूरत है...

सन्तोष कुमार राय

इतिहास के ऐसे दर्शन जो पश्चिमी सभ्यता के सह-चरित्र हैं, एक ही

दिशा में लगातार या रुक-रुक कर हुई प्रगति को मान्यता देते हैं।

राम मनोहर लोहिया की इतिहास चेतना सिर्फ अतीत का अलाप नहीं है बल्कि वर्तमान की समझ और भविष्य की सोच विकसित करने में हमारी मदद करने वाला एक सार्थक औजार है। लोहिया का इतिहास चिंतन आज के, और आने वाले कल के परिप्रेक्ष्य में निश्चय ही हमें उन समस्याओं से अवगत कराता है जिससे आज जापान जूझ रहा है। दरअसल आज हम जिस समय में जी रहे हैं उसे आधुनिकता के नाम से जाना जाता है। लेकिन आज आधुनिकता को उसी रूप में नहीं स्वीकार किया जा रहा है जिस रूप में आज से सौ या पचास साल पहले स्वीकार किया जाता था। सारे आधुनातन माप-दण्ड यूरोप से तय होते थे। हम न चाहते हुए भी यूरोप की ओर देखने के लिए मजबूर थे, शायद आज हम उससे कुछ मुक्त हुए हैं। आज भारत में एक खास तरह का आधुनिकता का विकल्प विकसित हो रहा है अन्यथा ओबामा को गांधी के चिंतन की ओर देखने की जरूरत नहीं होती। इसका मतलब साफ है कि दृष्टियों में बदलाव हो रहा है। हमारी पुरानी मन्यताओं का खंडन हो रहा है। लोहिया या गांधी का चिंतन भारतीय चिंतन परम्परा से विकसित हुआ है जिसे हमें फिर से देखने और अमल करने की आवश्यकता है।

लोहिया की ऐतिहासिक चेतना जिस समाज की हितैषी है वह पश्चिमी समाज नहीं है , वह विशुद्ध भारतीय है जिसकी अपनी सांस्कृतिक पहचान है। यही सांस्कृतिक पहचान लोहिया के चिंतन का ऐतिहासिक आधार, जो मानव इतिहास की असलियत से भी रुबरु कराता है--मानव इतिहास पर दृष्टि डालते हुए इसे अच्छी तरह याद रखना होगा कि ऐतिहासिक खोजों में अभी बहुतेरी असलियतों का पता है और उनमें से बहुत सी ऐसी हैं जिनका पता लग ही नही सकता।. . . जिन्होंने इतिहास के उन महान पुरूषों पर प्रभाव छोड़ा है, लेकिन जो या हम तक उनकी जानकारी नहीं पहुँची और जो जीवन के उद्देश्यों और कर्मों को समझने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। फिर भी ऐतिहासिक-दर्शन की खोज आवश्यक रूप से सतत जारी रहेगी, पर कुछ नम्रता के साथ।

लोहिया जिस इतिहास को हमें बताना चाहते थे वह उन लोगों का इतिहास है जिन्हे इतिहास से सदैव दूर रखा गया, जिनका एतिहास नहीं लिखा गया। पश्चिमी इतिहासकारों में से ज्यादातर ने सत्ताधारी वर्ग का ही इतिहास लिखा, हमने भी अपनी महत्वाकांक्षाओं की प्रबलता से बाहर निकलने की जहमत नहीं उठाया। ऐसे दौर में ये चिंतक हमारे लिए ‘हमारी राहों के अन्वेशी’ सिद्ध हो सकते हैं।

लोहिया ने लिखा है कि यदि पिछली सभ्यताएं सामाजिक विषमता और आध्यात्मिक समानता के अनमेल के बोझ से टूटीं, तो आधुनिक सभ्यता सामाजिक एकता और आध्यात्मिक विषमता के अनमेल के बोझ टूट रही है। आज इसे बेहिचक स्वीकार किया जा सकता है। आज हम जिसे विकास का पैमाना कह रहे हैं असल में वह कभी भी व्यापक मानवीय सरोकारों का हितैशी नहीं रहा है। वह यूरोप के व्दारा दिया गया एक वर्ग की जीवन शैली है जिसका इतिहास होता है।

बहरहाल लोहिया की ऐतिहासिक चेतना भारतीय सामाजिक समानता को प्रेरित करती है। यह प्रेरणा व्यापक मानवता की रक्षा के साथ-साथ समय को और अधिक मानवीय बनाने में हमारी मदद कर सकती है। यह तभी संभव है जब दृष्टियों में बदलाव हो और हम अपने अतीत से कुछ सीखें।

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