लोकतंत्र में प्रतिरोध कितना अहम् है?

सन्तोष कुमार राय

प्रतिरोध लोकतंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है बिना प्रतिरोध के लोकतंत्र नहीं हो सकता। प्रतिरोध दो तरह का होता है, हिंसक और अहिंसक, साथ ही दोनों की अपनी वैचारिकता, तार्किकता, क्षेत्र और क्रिया व्यापार होता है। आधुनिक भारत में दोनों धाराओं का समुचित विकास हुआ है। यह कहना गलत नहीं होगा कि 21वीं सदी में प्रतिरोध की समझ और संस्कार दोनों का विकास हुआ है, लेकिन आज भी प्रतिरोध को हिंसा से पूरी तरह अलग नहीं किया जा सका है। ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले इसकी उपादेयता नहीं थी, अवश्य थी लेकिन आज प्रतिरोध में कुछ वैचारिक समझदारी पहले की अपेक्षा अधिक दिखाई देती है। इससे पहले प्रतिरोध ऐसा नहीं होता था लेकिन वैश्विकता ने प्रतिरोधी संस्कृति को न सिर्फ वैश्विक बनाया बल्कि उसे पहले की अपेक्षा और अधिक बुद्धिग्राह्य भी बनाया। पहले के समय में हिंसा प्रतिरोध का आसान तरीका था। आधुनिक काल में अहिंसक मार्ग को भी अपनाया जाने लगा जिसकी सफलता को गांधी के राजनीतिक जीवन से लेकर आज के अनेक प्रतिरोधी आन्दोलनों में देखा जा सकता है। यह अलग बात है कि गांधी के विचारों से सहमति व्यक्त करने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ठीक उसके विपरीत कार्य कर रहे हैं। वह एक अलग तरह का राजनीतिक और कुटनीतिक भावुकता है जिसके सहारे आज के भारतीय ओबामा समर्थकों को बहुत इतराने की आवश्यकता नहीं है।

कई बार अहिंसक प्रतिरोध की नकार, उपेक्षा और अस्वीकृति से भी हिंसक प्रतिरोध का जन्म होता है। भारत में नक्सल आन्दोलन के पनपने का एक बड़ा कारण यह भी है। उन्हें बार-बार नकारने की कोशिश की गयी जिसका परिणाम आज इतना भयावह हो गया है जिसके दर्द को सिर्फ वे ही लोग बता सकते हैं जिन्होंने इसमें अपने लोगों को खोया है। दिल्ली की आंख से आम आदमी के दर्द को देखना आज कठिन है। सन् पचहत्तर के बाद से लगातार नक्सल समस्या को अनदेखा किया गया है। बार-बार उनकी बातों को नकारने की की कोशिश की गयी। सरकार की ओर से जब भी नक्सली संगठनों से बात करने की कोशिश हुई है, प्राय: हर बार सरकार की ओर से कुछ इस तरह के पूर्वनियोजित मसौदे बनाये गये या इस तरह की शर्तें रखी गयी जिन्हें न तो नक्सल-समर्थक माने और न ही बात आगे बढ़ी।

अहिंसक आन्दोलन के लिए यह वर्ष इतिहास में दर्ज हो गया है जिसने कई बड़े और ओहदेदार नेताओं को बौखलाया है। आज स्थिति यह है कि प्रतिरोधी बातों को सुनने का साहस न तो सरकार में रह गया है और न ही सरकार के सहयोगियों में। कई बार तो लोग हाथापाई पर उतर जा रहे हैं जो भारतीय राजनीति और भारतीय लोकतंत्र के लिए अत्यंत शर्म का विषय है। इस वर्ष दो बड़े अहिंसक आन्दोलन हुए पहला अन्ना हजारे का और दूसरा रामदेव और उनके समर्थकों का। भारतीय जनता की पीड़ा को लेकर दोनों ने सरकार से अपनी असहमति व्यक्त की और जनता ने खुलकर इस मुहीम में दोनो का बखूबी साथ दिया, लेकिन सत्ताधारी वर्ग ने दोनों का दमन दो तरह की कुटनीतिक चाल के तहत किया। रामदेव के प्रतिरोध का अन्दाजा सरकार को था इसीलिए पहले ही दिन से सरकार के होनहार और इस तरह के कार्य में अत्यंत माहिर केन्द्रीय मंत्रियों को लगाया गया और वे अपने कार्य को करने में सफल भी रहे। लेकिन जो प्रश्न जनता के जेहन में उन्होंने छोड़ा वह अब आसानी से नहीं मिटने वाला है। किसी भी प्रतिरोध या आन्दोलन को दबा देने से उसकी असफलता सिद्ध नहीं होती है, ठीक वैसे ही जैसे छोटे-छोटे घावों को बार-बार छेड़ने से वह दबता नहीं है बल्कि और बड़े रूप में नासुर बनकर उभरता है। भारतीय राजनीति में अगर भारतीय जनता ने अविश्वास जताया तो सरकार की ओर से उसे विश्वास में लेने की सकारात्मक कोशिश होनी चाहिए थी। अगर ऐसा हुआ होता तो लोकतंत्र के साथ देश के दूर दराज से आये हुए लोगों के आत्मसम्मान और स्वाभिमान की रक्षा होती, जिसका आने वाले समय में कांग्रेस को बड़ा लाभ मिल सकता था। आखिर क्या कारण है कि जिस जनता ने मनमोहन सिंह सरकार को दूसरी बार बहुमत देने के बाद देश के लोग अन्ना हजारे और रामदेव के साथ प्रतिरोधी आवाज उठा रहे हैं? अगर कांग्रेस के नेताओं की बात को मान ली जाय कि इस तरह के आन्दोलनों को जनता समझ नहीं पाती है और भावुकता या आवेश में समर्थन देती है तो इसे समझाने का तरीका क्या हो सकता है, क्या वही जो हुआ या कोई और? किसी भी आन्दोलन या धरना में गिरफ्तारी होती है लेकिन उस आन्दोलन में शामिल लोगों के आग्रह को भी देखा जाता है। उसमें शामिल लोग वही थे जो आज से दो साल पहले मनमोहन सिंह पर विश्वास किये थे जिसका इतना बुरा हस्र हुआ। जो जनता आपकी सरकार को चुनती है तो समझदार होती है वही दो साल में इतनी नासमझ कैसे हो जायेगी? कांग्रेस सरकार चाहे जितने तर्क दे लेकिन यह सत्य है कि आम आदमी का विश्वास सरकार के प्रति डगमगाया है और जो रामलीला मैदान में हुआ, इस तरह के कार्य उसे बढ़ायेंगे ही। अभी कितना दिन हुआ जब कांग्रेस के राहुल गांधी भट्टा पारसौल में धरना कर रहे थे और वहां उन्हें और पूरी पार्टी को बर्बरता दिखाई दे रही थी। जैसे आपको विरोध करना था तो धरना हुआ वैसे ही इस तरह के धरने आम आदमी के लोकतंत्रात्मक अधिकार हैं जिससे किसी को वंचित नहीं किया जा सकता। बाहर से आये हुए लोगों का सम्मान और सहयोग करने के वजाय बल प्रयोग और अपमानित किया गया और यह उसी जनता की चुनी हुई सरकार ने किया है जिसे जनता ने अपना विश्वास दिया था। यह कैसा लोकतंत्र है और किसकी रक्षा है?अन्ना हजारे ने फिर अनशन करने की घोषणा किया है जिसकी संभावित तिथि 16 अगस्त है। जाहिर सी बात है यह सरकार के लिए यह आसान नहीं होगा। अब सरकार इसे किस तरह लेती है यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

राजनीतिक दांव-पेच का कहां इस्तेमाल किया जाय इसकी समझ बहुत आवश्यक है। इस तरह के आन्दोलनों में कोई भी कदम बहुत समझ बूझ के साथ उठाया जाना चाहिए। इस तरह धरनों में शामिल होने वाले लोग सिर्फ विरोधी नहीं होते, उनमें आपके समर्थक हभी होते हैं जो आपकी कार्यप्रणाली से असंतुष्ट होकर प्रतिरोध करते हैं। वे प्रतिरोधी पार्टियों के नेता थे जिन्हें कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है। कांग्रेस की बहुत पुरानी नीति रही है कि वह किसी भी प्रतिरोधी मुद्दे पर बात अपनी शर्तों पर करना चाहती है। अपनी शर्तों को मनवाने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकती है, इसका ताजा नमूना देखने को मिला है। यह सही है कि इसका नेतृत्व अन्ना और रामदेव कर रहे थे लेकिन ये आन्दोलन केवल अन्ना या रामदेव के नहीं थे और यदि आगे भी होगे तो वे किसी व्यक्ति विशेष के नहीं होंगे। प्रतिरोध का अधिकार भी लोकतंत्र का हिस्सा है, इस तरह के प्रतिरोध का समर्थन किया जाना चाहिए। इससे डरने की आवश्यकता नहीं है। इसे आधुनिक मनुष्य की आधिकारिक सजगता के रूप में देखा जाना चाहिए तथा इसका स्वागत लोकतंत्र में स्वागत होना चाहिए। अगर इसे सरकार सकारात्मक रूप में लेगी तो यह भारत के लिए गौरन की बात होगी। किसी पर थप्पड़ या लाठी चलाने से प्रतिरोध समाप्त होना होता तो हमारा देश आज भी अंग्रेजों के अधीन होता क्योंकि उनसे अधिक थप्पड़, लाठी और गोली किसने चलाया है और वह भी निहत्थे लोगों पर। इसलिए आज के राजनीतिक नुमाइंदों को यह बात समझनी चाहिए कि आज आप जिस जगह खड़े हैं वहां आपको जनता ने ही बैठाया है, आप वही पैदा नहीं हुए थे। सम्मान करेंगे तो सम्मान मिलेगा...।

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