धन्वा की दूसरी दस्तक

राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित....

हस्ताक्षर/संतोष कुमार राय

पाठकों के लिए यह खुशी की बात है कि बारह साल के लम्बे अंतराल बाद चर्चित कवि आलोक धन्वा की कुछ कविताओं का प्रकाशन हुआ है। आलोक धन्वा अपनी कविताओं में जिस आवाज के लिए जाने जाते हैं, उनका मौन भी वैसा ही गहरा रहा। बहरहाल लम्बे अंतराल के सजोए अनुभव को अब उन्होंने हम सभी के साथ बांटना शुरू कर दिया है। जनता की आवाज को अपनी कविताओं में उठाने वाले कवियों की फेहरिस्त में शामिल धन्वा का अचानक कविताओं की रचना से विमुख होना कुछ अधिक चौंकाने वाला था। लेकिन इसका सुखद अंत हो गया है। उनके पहले कविता संग्रह की चर्चित कविताओं में ‘जनता का आदमी’, ‘गोली दागो पोस्टर’, ‘ब्रूनो की बेटियां’, ‘सफेद रात’ जैसी कविताएं आज भी कविताप्रेमियों का ध्यान आकर्षित करती हैं। ‘सफेद रात’ में उनकी सर्जनात्मकता बेहद संवेदनशील चिंतन के रूप में अभिव्यक्त हुई है। मसलन- ‘लखनऊ में बहुत कम बच रहा है लखनऊ/इलाहाबाद में बहुत कम इलाहाबाद/कानपुर और बनारस और पटना और अलीगढ़/अब इन्ही शहरों में/कई तरह की हिंसा, कई तरह के बाजार/कई तरह के सौदाई, इनके भीतर इनके आस-पास/इनसे बहुत दूर बम्बई हैदराबाद और श्रीनगर/हिंसा/ और हिंसा की तैयारी/और हिंसा की ताकत/बहस नहीं चल पाती/हत्याएं होती हैं/फिर जो बहस चलती है/उसका भी अंत हत्याओं में होता है।’

आलोक धन्वा की कविताओं में मनुष्य की पीड़ा, छटपटाहट, और हिंसा के कारण बेजुबान होती मनुष्यता का दर्द उभरकर आया है। छोटे छोटे विषयों पर अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की उनमें अद्भुत क्षमता है। इसी कविता में वे आगे कहते हैं, ‘भारत में जन्म लेने का मैं भी कोई मतलब पाना चाहता था/ अब वह भारत भी नहीं रहा जिसमें जन्म लिया’। समय का अंतराल जरूर बढ़ गया है लेकिन कविता की धार आज भी वैसी ही है जिसके लिए धन्वा को जाना जाता है। ‘बहुबचन’

26-27 संयुक्तांक में उनकी चार नयी कविताएं छपी हैं। पहली कविता जितनी सुन्दर है, उतनी ही हृदयस्पर्शी भी, जिसमें रचनाकार ने ‘मुलाकातें’ के बहाने अपने विचारों को साझा किया है, ‘मेरे पास समय कम/होता जा रहा है/मेरी प्यारी दोस्त’। और ‘दुख-सुख तो/ आते-जाते रहेंगे/सब कुछ पार्थिव है यहां/लेकिन मुलाकातें नहीं हैं पार्थिव’। इस तरह की और इस उम्र में इतने आशावादी नजरिये की कविताएं फिर से आलोक धन्वा की पुरानी यादें ताजा करेंगी। इसी अंक में दूसरी कविता ‘आम के बाग’ शीर्षक से है। इसमें वे कहते हैं, ‘मुझे पता है कि/अवध, दीघा और मालदह में/घने बाग हैं आम के/लेकिन अब कितने और/कहां कहां/अक्सर तो उनके उजड़ने की/खबर आती रहती है’। अपने भारतीय होने की बात को उन्होंने सफेद रात में भी व्यक्त किये हैं लेकिन इस कविता में भी वे बातें फूट पड़ी हैं, ‘यह भी उतनी ही असुरक्षित/जितना हम मनुष्य इन दिनों/आम जैसे रसीले फल के लिए/भाषा कम पड़ रही है/मेरे पास/भारतवासी होने का सौभाग्य/तो आम से भी बनता है’। बहुत ही मार्मिंक बात रचनाकार ने कही है कि भारतवासी होना सौभाग्य की बात है, लेकिन क्या आज का कवि आज के समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और लूट को अनदेखा कर रहा है। ऐसा नहीं है। वह यह संदेश भी दे रहा है कि जहां सौभाग्य था वहां दुर्भाग्य कितनी तेजी से आ रहा है। अगली दो कविताएं ‘गाय और बछड़ा’

तथा ‘बुलबुल के तराने’ हैं। ‘गाय और बछड़ा’

में प्रेम और सौन्दर्य की सृष्टि देखने योग्य है। वह कहते है- ‘बछड़े की आंखे उसकी मां/से भी ज्यादा काली हैं/अभी दुनिया की धूल से अछूती’। यहां दुनिया की धूल से मतलब आज के उन तमाम सांसारिक अवयवों से है जो मनुष्य को आंख होते हुए भी अंधा कर देते हैं। अंतिम कविता में बुलबुल की सी मिठास है। गाने के जितने अंदाज हो सकते हैं, साथ ही जितनी तरह से उसका आस्वादन किया जा सकता है, उन सभी अवयवों को कवि ने इसमें सजाने का भरपूर प्रयास किया है। रचनाकार को पता है कि गाते-गाते अचानक चुप हो जाना श्रोताओं को कितना बैचैन कर सकता है। वे लिखते हैं, ‘पल दो पल के लिए/ अचानक चुप हो जाती है/ तब और भी व्याकुलता/ जगाती है/ तरानों के बीच उसका मौन/ कितना सुनाई देता है’। रचनाकार ने इसे बहुत ही गहराई से महसूस किया है। वैसे धन्वा के नये अवतार में पहले की अपेक्षा थोड़ा अंतर तो आया है। वहां अब ‘गोली दागो पोस्टर’ जैसी क्रांति नहीं है। बल्कि थोड़ा ज्यादा शान्ति और प्रेम है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी आदि के प्रति मनुष्य सरीखे प्रेम की अभिव्यक्ति आज के कविताहीन दौर में कविता की आस जगाती है। रचनाकार ने ‘मुलाकातें’ में यह भी संकेत दे दिया है कि ‘मेरे पास समय कम होता जा रहा है’- यह एक ऐसी सचाई है जिसे अनदेखा नही किया जा सकता। लेकिन पाठकों के लिए यह सुखदायक है कि जितना समय बचा हुआ है, उसमें हमे कुछ इसी तरह का हृदयग्राही साहित्य मिलेगा।

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